कोख़ का क़त्ल —मासूम बच्ची “मेरी एक नज़्म —-कवि दीपक शर्मा “
Sachchi Baat Kahi Thi Maine
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प्रिय मित्रों एवं मान्यवर मैं कवि दीपक शर्मा अपनी रचित नज़्म जो कन्या भ्रूण हत्या पर लिखी गई है और पिछले २० सालों से आप सबका इस नज़्म को जो आशीर्वाद प्राप्त हुआ तथा मेरी तीसरी काव्य कृति “ख़लिश” -तेरी आवाज़मेरे अल्फ़ाज़ में संकलित है , आप सब को नज़र करता हूँ.
कोख़ का क़त्ल -नज़्म “दीपक शर्मा “
“ज़मीं के सीने से लिपटा ये कफ़न किसका है कफ़न में लिपटा ये मासूम बदन किसका है कफ़न नया नहीं पुरानी धोती का टुकड़ा है और इस टुकड़े में लिपटा प्यारा सा मुखड़ा है
बड़ी बेदर्दी से दफनाया गया मिटटी में इसे पाँव पेट से लगे हैं , सिर छाती में सिकुड़ा है
मिटटी तक गीली है ले देख मिटटी की हालत खाक तक पूरी न मयस्सर हुई कब्र को इसकी और ऊपर से रख दिए फिर पत्थर तमाम ताकि जान न पायें निगाहें कब्र है किसकी
एक परी ने कहीं शक्ल एक बच्ची की लेकर किसीके सुने चमन में खिलना चाहा था उसने सोचा चलो ; जी लूँ इंसान की तरह माँ की छाती से चिपककर पलना चाहा था
उसे मालूम न था कि पहली किलकारी ही उसकी चीख़ बनकर रह जाएगी गले के ही भीतर निगाहें देख भी ना पाएंगी दुनिया नज़र पहली और दुनिया ही सिमट जायेगी नज़र के भीतर
क़त्ल कर देंगे माँ – बाप इस ख़ातिर क्योंकि उसकी आवाज़ से आई है शहनाई की सदा उनकी उम्मीदें थीं डोलियाँ ओथाने की कहीं न की दहलीज़ से हो उनके कोई लड़की विदा
झूटी शान की ख़ातिर ,पुरानी रस्मों के कारण लोग नन्हीं- नन्हीं बेटियों की काट देते हैं बोटियाँ ताकि सिर ना झुके कहीं गैर पाँव के आगे बेटी देती नहीं हैं मोक्ष, वंश और रोटियां
और बड़ी कमतर सी बात ये जो माँ अपना लहू पिलाती है सुबह – शाम महीनों तक जिसकी धड़कन के संग धड़कती एक धड़कन जिसकी साँसों से लेती कोई सांस महीनो तक
जब वही अहसास एक शक्ल बच्ची की लेकर कोख से आता है तो माएं क्यों आंसू बहाती हैं क्यों निगाहें फेर लेतीं फिर पत्थर – दिल बनकर जब ख़ुद दाइयां इन मासूमों का गला दबाती हैं
क्यों रातों की स्याही और दिल के उजाले में लोग रौशिनी को अँधेरे कमरों की बुझा देते हैं दबा कर नर्म गला, हिस्से कर मासूम बदन घर की चौखट पर एक दिया जला देते हैं
याद रखो ! कि आसमान की बिसात है तब तक जब तलक पाँव ज़मीन पे हैं और जहाँ तक जहाँ पर धरती ख़त्म, आसमान वहीँ ख़त्म इन झूटी ख्वाहिशों की फकत दुनिया है वहां तक
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